गुरुवार, 5 मार्च 2009

गज़ब कानून १

एक संस्मरण !.गज़ब कानून!

( अपनी श्रीन्ख्लासे एक ब्रेक लेके इस ज़रूरी संस्मरण को लिखना चाहती हूँ...वजह है अपने१५० साल पुराने, इंडियन एविडेंस एक्ट,(IEA) कलम २५ और २७ के तहेत बने कानून जिन्हें बदल ने की निहायत आवश्यकता है....इन कानूनों के रहते हमआतंकवाद या अन्य तस्करीसे निजाद पाही नही सकते...
इन कानूनों मेसे एक कानून के परिणामों का , किसीने आँखों देखा सत्य प्रस्तुत कर रही हूँ.....जिसपे आधारित एक सत्य घटनाका कहानीके रूपमे परिवर्तन करुँगी। डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल के अनुरोधपे " शोध दिशा" इस मासिक के लिए...)
CHRT( कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट्स इनिशिएतिव .....Commonwealth Human Rights Initiative), ये संघटना 3rd वर्ल्ड के तहेत आनेवाले देशों मे कार्यरत है।
इसके अनेक उद्दिष्ट हैं । इनमेसे,निम्लिखित अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है :
अपने कार्यक्षेत्र मे रिफोर्म्स को लेके पर्याप्त जनजागृती की मुहीम, ताकि ऐसे देशोंमे Human Rights की रक्षा की जा सके।
ये संघटना इस उद्दिष्ट प्राप्ती के लिए अनेक चर्चा सत्र ( सेमिनार) तथा debates आयोजित करती रहती है।
ऐसेही एक चर्चा सत्र का आयोजन, २००२ की अगस्त्मे, नयी देहली मे किया गया था। इस सत्र के अध्यक्षीय स्थानपे उच्चतम न्यायालयके तत्कालीन न्यायाधीश थे। तत्कालीन उप राष्ट्रपती, माननीय श्री भैरव सिंह शेखावत ( जो एक पुलिस constable की हैसियतसे ,राजस्थान मे कार्यरत रह चुके हैं), मुख्य वक्ता की तौरपे मौजूद थे।
उक्त चर्चासत्र मे देशके हर भागसे अत्यन्त उच्च पदों पे कार्यरत या अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों से ताल्लुक रखनेवाली हस्तियाँ मोजूद थीं : आला अखबारों के नुमाइंदे, न्यायाधीश ( अवकाश प्राप्त या कार्यरत) , आला अधिकारी,( पुलिस, आईएस के अफसर, अदि), वकील और अन्य कईं। अपने अपने क्षेत्रों के रथी महारथी। हर सरकारी मेहेकमेकों के अधिकारियों के अलावा अनेक गैर सरकारी संस्थायों के प्रतिनिधी भी वहाँ हाज़िर थे। (ngos)

जनाब शेखावत ने विषयके मर्मको जिस तरहसे बयान किया, वो दिलो दिमाग़ को झक झोर देने की क़ाबिलियत रखता है।
उन्होंने, उच्चतम न्यायलय के न्यायमूर्ती( जो ज़ाहिर है व्यास्पीठ्पे स्थानापन्न थे), की ओर मुखातिब हो, किंचित विनोदी भावसे क्षमा माँगी और कहा,"मेरे बयान को न्यायालय की तौहीन मानके ,उसके तहेत समन्स ना भेज दिए जाएँ!"
बेशक, सपूर्ण खचाखच भरे सभागृह मे एक हास्य की लहर फ़ैल गयी !
श्री शेखावत ने , कानूनी व्यवस्थाकी असमंजसता और दुविधाका वर्णन करते हुए कहा," राजस्थान मे जहाँ, मै ख़ुद कार्यरत था , पुलिस स्टेशन्स की बेहद लम्बी सीमायें होती हैं। कई बार १०० मीलसे अधिक लम्बी। इन सीमायों की गश्त के लिए पुलिस का एक अकेला कर्मचारी सुबह ऊँट पे सवार हो निकलता है। उसके साथ थोडा पानी, कुछ खाद्य सामग्री , कुछ लेखनका साहित्य( जैसे कागज़ पेन्सिल ) तथा लाठी आदि होता है।
"मै जिन दिनों की बात कर रहा हूँ ( और आजभी), भारत पाक सीमापे हर तरह की तस्करी, अफीम गांजा,( या बारूद तथा हथियार भी हुआ करते थे ये भी सत्य है.....जिसका उनके रहते घटी घटनामे उल्लेख नही था) ये सब शामिल था, और है।
एक बात ध्यान मे रखी जाय कि नशीले पदार्थों की कारवाई करनेके लिए ,मौजूदा कानून के तहेत कुछ ख़ास नियम/बंधन होते हैं। पुलिस कांस्टेबल, हेड कांस्टेबल, या सब -इंस्पेक्टर, इनकी तहकीकात नही कर सकता। इन पदार्थों की तस्करी करनेवाले पे, पंचनामा करनेकी विधी भी अन्य गुनाहों से अलग तथा काफी जटिल होती है।"
उन्होंने आगे कहा," जब एक अकेला पुलिस कर्मी , ऊँट पे सवार, मीलों फैले रेगिस्तानमे गश्त करता है, तो उसके हाथ कभी कभार तस्कर लगही जाता है।
"कानूनन, जब कोई मुद्देमाल पकडा जाता है, तब मौक़ाये वारदात पेही( और ये बात ह्त्या के केस के लिएभी लागू है ), एक पंचनामा बनाना अनिवार्य होता है। ऐसे पंचनामे के लिए, उस गाँव के या मुहल्ले के , कमसे कम दो 'इज्ज़तदार' व्यक्तियों का उपस्थित रहना ज़रूरी है।"

श्री शेखावत ने प्रश्न उठाया ," कोईभी मुझे बताये , जहाँ मीलों किसी इंसान या पानीका नामो निशाँ तक न हो , वहाँ, पञ्च कहाँ से उपलब्ध कराये जाएँ ? ? तो लाज़िम है कि , पुलिसवाला तस्करको पकड़ अपनेही ही ऊँट पे बिठा ले। अन्य कोई चारा तो होता ही नही।
"उस तस्करको पकड़ रख, वो पुलिसकर्मी सबसे निकटतम बस्ती, जो २०/ २५ किलोमीटर भी हो सकती है, ले जाता है। वहाँ लोगोंसे गिडगिडा के दो " इज्ज़तदार व्यक्तियों" से इल्तिजा करता है। उन्हें पञ्च बनाता है।
" अब कानूनन, पंचों को आँखों देखी हकीकत बयान करनी होती है। लेकिन इसमे, जैसाभी वो पुलिसकर्मी अपनी समझके अनुसार बताता है, वही हकीकत दर्ज होती है। "पञ्च" एक ऐसी दास्तान पे हस्ताक्षर करते हैं, जिसके वो चश्मदीद गवाह नही। लेकिन कानून तो कानून है ! बिना पंचानेमेके केस न्यायालय के आधीन होही नही सकता !!
" खैर! पंचनामा बन जाता है। और तस्कर या जोभी आरोपी हो, वो पुलिस हिरासतसे जल्द छूट भी जता है। वजह ? उसके बेहद जानकार वकील महोदय उस पुलिस केस को कानून के तहेत गैरक़ानूनी साबित करते हैं!!!तांत्रिक दोष...A technical flaw !
" तत्पश्च्यात, वो तस्कर या आरोपी, फिर से अपना धंदा शुरू कर देता है। पुलिस पे ये बंधन होता है की ३ माह के भीतर वो अपनी सारी तहकीकात पूरी कर, न्यायालयको सुपुर्द कर दे!! अधिकतर ऐसाही होता है, येभी सच है ! फिर चाहे वो केस, न्यायलय की सुविधानुसार १० साल बाद सुनवाईके लिए पेश हो या निपटाया जाय....!

"अब सरकारी वकील और आरोपी का वकील, इनमे एक लम्बी, अंतहीन कानूनी जिरह शुरू हो जाती है...."
फिर एकबार व्यंग कसते हुए श्री शेखावत जी ने कहा," आदरणीय जज साहब ! एक साधारण व्यक्तीकी कितनी लम्बी याददाश्त हो सकती है ? २ दिन २ माह या २ सालकी ??कितने अरसे पूर्व की बात याद रखना मुमकिन है ??
ये बेहद मुश्किल है कि कोईभी व्यक्ती, चश्मदीद गवाह होनेके बावजूद, किसीभी घटनाको तंतोतंत याद रखे !जब दो माह याद रखना मुश्किल है तब,१० सालकी क्या बात करें ??" (और कई बार तो गवाह मरभी जाते हैं!)
" वैसेभी इन २ पंचों ने (!!) असलमे कुछ देखाही नही था! किसीके " कथित" पे अपने हस्ताक्षर किए थे ! उस " कथन" का झूठ साबित करना, किसीभी वकील के बाएँ हाथका खेल है ! और वैसेभी, कानून ने तहेत किसीभी पुलिस कर्मी के( चाहे वो कित्नाही नेक और आला अफसर क्यों न हो ,) मौजूदगी मे दिया गया बयान ,न्यायलय मे सुबूतके तौरपे ग्राह्य नही होता ! वो इक़्बालिये जुर्म कहलाही नही सकता।( चाहे वो ह्त्या का केस हो या अन्य कुछ) ।(IEA ) कलम २५ तथा २७ , के तहेत ये व्यवस्था अंग्रेजों ने १५० साल पूर्व कर रखी थी, अपने खुदके बचाव के लिए,जो आजतक कायम है ! कोई बदलाव नही ! ज़ाहिरन, किसीभी पुलिस करमी पे, या उसकी बातपे विश्वास किया ही नही जा सकता ऐसा कानून कहता है!! फिर ऐसे केसका अंजाम क्या होगा ये तो ज़ाहिर है !"


गज़ब कानून !२

Tuesday, February 17, 2009

गज़ब कानून..


जारी है, श्री शेखावत, भारत के माजी उपराष्ट्रपती के द्वारा दिए गए भाषण का उर्वरित अंश:
श्री शेखावतजी ने सभागृह मे प्रश्न उपस्थित किया," ऐसे हालातों मे पुलिसवालों ने क्या करना चाहिए ? कानून तो बदलेगा नही...कमसे कम आजतक तो बदला नही ! ना आशा नज़र आ रही है ! क़ानूनी ज़िम्मेदारियों के तहत, पुलिस, वकील, न्यायव्यवस्था, तथा कारागृह, इनके पृथक, पृथक उत्तरदायित्व हैं।

"अपनी तफ़तीश पूरी करनेके लिए, पुलिस को अधिकसे अधिक छ: महीनोका कालावधी दिया जाता है। उस कालावाधीमे अपनी सारी कारवाई पूरी करके, उन्हें न्यायालय मे अपनी रिपोर्ट पेश करनेकी ताक़ीद दी जाती है। किंतु, न्यायलय पे केस शुरू या ख़त्म करनेकी कोई समय मर्यादा नही, कोई पाबंदी नही ! "

शेखावतजीने ऐलानिया कहा," पुलिस तक़रीबन सभी केस इस समय मर्यादा के पूर्व पेश करती है!"( याद रहे, कि ये भारत के उपराष्ट्रपती के उदगार हैं, जो ज़ाहिरन उस वक्त पुलिस मेहेकमेमे नही थे....तो उनका कुछ भी निजी उद्दिष्ट नही था...नाही ऐसा कुछ उनपे आरोप लग सकता है!)
"अन्यथा, उनपे विभागीय कारवाई ही नही, खुलेआम न्यायलय तथा अखबारों मे फटकार दी जाती है, बेईज्ज़ती की जाती है!! और जनता फिर एकबार पुलिस की नाकामीको लेके चर्चे करती है, पुलिसकोही आरोपी के छूट जानेके लिए ज़िम्मेदार ठहराती है। लेकिन न्यायलय के ऊपर कुछभी छींटा कशी करनेकी, किसीकी हिम्मत नही होती। जनताको न्यायलय के अवमान के तहत कारवाई होनेका ज़बरदस्त डर लगता है ! खौफ रहता है ! "
तत्कालीन उप राष्ट्रपती महोदयने उम्मीद दर्शायी," शायद आजके चर्चा सत्र के बाद कोई राह मिल जाए !"
लेकिन उस चर्चा सत्रको तबसे आजतक ७ साल हो गए, कुछभी कानूनी बदलाव नही हुए।

उस चर्चा सत्र के समापन के समय श्री लालकृष्ण अडवानी जी मौजूद थे। ( केन्द्रीय गृहमंत्री के हैसियतसे पुलिस महेकमा ,गृहमंत्रालय के तहेत आता है , इस बातको सभी जानतें हैं)।
समारोप के समय, श्री अडवाणीजी से, (जो लोह्पुरुष कहलाते हैं ), भरी सभामे इस मुतल्लक सवाल भी पूछा गया। ना उन्ह्नों ने कोई जवाब दिया ना उनके पास कोई जवाब था।
बता दूँ, के ये चर्चा सत्र, नेशनल पुलिस commission के तहेत ( 1981 ) , जिसमे डॉ. धरमवीर ,ICS , ने , पुलिस reforms के लिए , अत्यन्त उपयुक्त सुझाव दिए थे, जिन्हें तुंरत लागू करनेका भारत के अत्युच्च न्यायलय का आदेश था, उनपे बेहेस करनेके लिए...उसपे चर्चा करनेके लिए आयोजित किया गया था। आजभी वही घिसेपिटे क़ानून लागू हैं।
उन सुझावों के बाद और पहलेसे ना जाने कितने अफीम गांजा के तस्कर, ऐसे कानूनों का फायदा उठाते हुए छूट गए...ना जाने कितने आतंकवादी बारूद और हथियार लाते रहे, कानून के हथ्थेसे छूटते गए, कितने बेगुनाह मारे गए, कितनेही पुलिसवाले मारे गए.....और कितने मारे जायेंगे, येभी नही पता।
ये तो तकरीबन १५० साल पुराने कानूनों मेसे एक उदाहरण हुआ। ऐसे कई कानून हैं, जिनके बारेमे भारत की जनता जानती ही नही।
मुम्बई मे हुए ,सन २००८, नवम्बर के बम धमाकों के बाद, २/३ पहले एक ख़बर पढी कि अब e-कोर्ट की स्थापना की जा रही है। वरना, हिन्दुस्तान तक चाँद पे पोहोंच गया, लेकिन किसी आतंक वादीके मौजूदगी की ख़बर लखनऊ पुलिस गर पुणे पुलिस को फैक्स द्वारा भेजती, तो न्यायलय उसे ग्राह्य नही मानता ...ISIका एजंट पुणे पुलिसको छोड़ देनेकी ताकीद न्यायलय ने की ! वो तो लखनऊसे हस्त लिखित मेसेज आनेतक, पुणे पुलिस ने उसपे सख्त नज़र रखी और फिर उस एजंट को धर दबोचा।
सम्पूर्ण
फिर एक बार क्षमा प्रार्थी हूँ...पिछले ६ घंटों से अधिक हो गया transliteration का यत्न करते हुए....


शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.!.१

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.....1

शीघ्र सवेरे कुछ साढ़े चार बजे,आशाकी आँखे इस तरह खुल जाती मानो किसीने अलार्म लगाके उसे जगाया हो। झट-से आँखों पे पानी छिड़क वो छत पे दौड़ती और सूर्योदय होनेका इंतज़ार करते हुए प्राणायाम भी करती। फिर नीचे अपनी छोटी-सी बगियामे आती। कोनेमेकी हिना ,बाज़ू मे जास्वंदी,चांदनी,मोतियाकी क्यारी, गेट के कमानपे चढी जूहीकी बेलें,उन्हीमे लिपटी हुई मधुमालती। हरीभरी बगिया। लोग पूछते, क्या डालती हो इन पौधों मे ? हमारे तो इतने अच्छे नही होते? प्यार! वो मुस्कुराके कहती।

हौले,हौले चिडियांचूँ,चूँ करने लगती।पेडों परके पत्तों की शबनम कोमल किरनोमे चमकने लगती! पँछी इस टहनी परसे उस टहनी पर फुदकने लगते। बगियाकी बाड्मे एक बुलबुलने छोटा -सा घोंसला बनाके अंडे दिए थे। वो रोज़ दूरहीसे झाँक कर उसमे देखती। खुदही क्यारियोंमेकी घाँस फूँस निकालती। फिर झट अन्दर भागती। अपनेको और कितने काम निपटाने हैं,इसका उसे होश आता

नहा धोकर बच्चों तथा पतीके लिए चाय नाश्ता बनाती। पती बैंक मे नौकरी करता था। वो स्वयम शिक्षिका। बच्चे डॉक्टरी की पढाई मे लगे हुए। कैसे दिन निकल शादी होकर आयी थी तब वो केवल बारहवी पास थी बाप शराबी था। माँ ने कैसे मेहनत कर के उसे पाला पोसा था। तब पती गराज मे नौकरी करता था।

शादी के बाद झोपड़ पट्टी मे रहने आयी। पड़ोस की भाभी ने एक हिन्दी माध्यम के स्कूलमे झाडू आदि करने वाली बाई की नौकरी दिलवा थी । बादमे उसी स्कूलकी मुख्याध्यापिकाके घर वो कपडे तथा बर्तन का काम भी कर ने लगी। पढ़ने का उसे शौक था। उसे उन्हों ने बाहर से बी ए करने की सलाह दी। वो अपने पतीके भी पीछे लग गयी। खाली समयमे पढ़ लो,पदवीधर बन जाओ,बाद मे बैंक की परीक्षाएँ देना,फायदेमे रहोगे।
धीरे,धीरे बात उसकी भी समझ मे आयी। कितनी मेहनत की थी दोनो ने! पढाई होकर,ठीक-से नौकरी लगनेतक बच्चों को जन्म न देनेका निर्णय लिया था दोनोने। पती को बैंक मे नौकरी लगी तब वो कितनी खुश हुई थी !

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! २

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना...! २

और एक दिन बाप गुज़र जानेकी खबर आयी। उन दिनों वो गर्भवती भी थी। मायके जाकर अपनी माँ को अपने एक कमरे के घर मे ले आयी। पती को बैंक की ओरसे घर बनवानेके अथवा खरीदनेके लिए क़र्ज़ मिलने वाला था। दोनोने मिलकर घर ढूढ़ ना शुरू किया। शहर के ज़रा सस्ते इलाकेमे मे दो कमरे और छोटी-सी रसोई वाला,बैठा घर उन्हें मिल गया। आगे पीछे थोडी-सी जगह थी। दोनो बेहद खुश हुए। कमसे कम अब अपना बच्चा पत्रे के छत वाले, मिट्टी की दीवारोंवालें , घुटन भरे कमरेमे जन्म नही लेगा!
वो और उसकी माँ , दोनोही बेहद समझदारीसे घरखर्च चलाती । कर्जा चुकाना था। माँ नेभी अडोस पड़ोस के कपडे रफू कर देना,उधडा हुआ सी देना, बटन टांक देना, मसाले बना देना तो कभी मिठाई बना देना, इस तरह छोटे मोटे काम शुरू कर दिए। वो बेटीपर कतई बोझ नही बनना चाहती थी और उनका समयभी कट जाता था।
एक दिन आशाने कुतुहल वश उनसे पूछा,"माँ, मैं तेरी कोख से सिर्फ एकही ऑलाद कैसे हूँ? जबकी आसपास तुझ जैसों को ढेरों बच्चे देखती हूँ?"
माँ धीरेसे बोली,"सच बताऊ? मैंने चुपचाप जाके ओपरेशन करवा लिया था। किसीको कानोकान खबर नही होने दी थी। तेरा बाप और तेरी दादी"बेटा चाहिए "का शोर मचाके मेरी खूब पिटाई लगाते थे। मेहनत मैं करुँ,शराब तेरा बाप पिए, ज़्यादा बच्चों का पेट कौन भरता?बोहोत पिटाई खाई मैंने,लेकिन तुझे देख के जी गयी। तेरी दादी कहती,तेरे बाप की दूसरी शादी करा देंगी , लेकिन उस शराबी को फिर किसीने अपनी बेटी नही दी। "

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3

ये सुनकर उसका अपनी अशिक्षित माँ के प्रती आदर एकदम से बढ़ गया। कितने धीरज से ज़िंदगी का सामना किया था उस अनपढ़ औरत ने!
आशाके दिन पूरे हो गए। सरकारी अस्पताल मी उसका प्रसव हुआ। सबकुछ ठीक ठाक हो गया। नामकरण के समय पतीने कहा,"नाम मे कहीं तो 'राजा' होना चाहिए। यथानाम तथा गुण। मन से धन से वो राजा बनेगा। अंत मे "राजीव"नाम रखा और उसका राजू बन गया। सबकुछ कैसा मनमुताबिक चल रहा था। भगवान्! मेरे नसीब को कहीँ नज़र न लग जाये, कभी,कभी आशाके मनमे विचार आता।

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ४

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ४

राजू दो सालका हुआ न था कि आशाके पैर फिर भारी हुए। उसे फिर लड़काही हुआ। वो थोडी-सी मायूस हुई। लडकी होती तो शायद आगे चलके सहेली बन गयी होती...... इस लड़केका नाम इन लोगोंने संजीव रखा। राजू-संजूकी जोड़ी!
उसने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलमे डाला। बच्चे आज्ञाकारी थे। माँ-बाप तथा दादीका हमेशा आदर करते। समय पर पढाई खेल कभी कभार हठ्भी, जो कभी पूरा किया जाता कभी नही। दिन पखेरू बनके सरकते रहे......

इस बीच उसने बी.एड.भी कर लिया। पतीने बैंकिंग की औरभी परीक्षाएँ दी तथा तरक़्क़ी पाई। राजू दसवी तथा बारहवी कक्षा तक बहुत बोहोत बढिया नमबरोंसे पास होता गया और उसे सहजही मेडिकल कॉलेज मे प्रवेश मिल गया।
जब संजू बारवी मे था तब आशा की माँ गुज़र गयी। सिर्फ सर्दी-खाँसी तथा तेज़ बुखार का निमित्त हुआ और क्या हो रहा है ये ध्यान मे आनेसे पहलेही उसके प्राण उड़ गए। न्युमोनिया का निदान तो बादमे हुआ।

बोहोत दिनोतक माँ की यादों मे उसकी पलके नम हो जाती। आशा स्कूलसे आती तो माँ चाय तैयार रखती। खाना तैयार रखती। सासकी इस चुस्ती पर उसका पतीभी खुश रहता। धीरे,धीरे खाली घरका ताला खोल के अन्दर जानेकी उसे आदत हो गयी।
संजूको भी बारहवी मे बोहोत अछे गुण मिले राजू के बाद वोभी मेडिकल कोलेजमे दाखिल हो गया। देखतेही देखते राजू एम्.बी.बी.एस.हो गया।
internship पूरी करके सर्जन भी बन गया। उसकी प्रगल्भ बुद्धीमत्ता की शोहरत शहरभर मे फ़ैल गयी और एक मशहूर प्राइवेट अस्पताल मे उसे नौकरी भी मिल गयी। इस दरमियाँ पतीके पीछे लगके उसने छतपे दो सुन्दरसे कमरे भी बनवा लिए थे। राजू संजूके ब्याह्के बाद तो ये आवश्यक ही होगा।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ५

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ५

अब राजूकी शादीके सपने वो देखने लगी। अपनेपर,इस घरपर,राजूको दिल दे सकनेवाली,प्यार करनेवाली लडकी वो तलाशने लगी। अव्वल तो उसने राजूको पूछ लिया कि उसने पहलेही किसीको पसंद तो नही कर रखा है। लेकिन वैसा कुछ नही था। एक दिन किसी समरोह्मे देखी लडकी उसे बड़ी पसंद आयी। उसने वहीं के वहीं थोडी बोहोत जानकारी हासिल की। लडकी दूसरे शेहेरसे आयी थी। उसके माँ-पिताभी उस समारोह मी थे। उसने खुद्ही लडकी की माँ को अपने मनकी बात बताई। लड़कीकी माँ को प्रस्ताव अच्छा लगा। दोनोने मिलकर लड़का-लडकी के बेमालूम मुलाक़ात का प्लान बनाया। रविवारके रोज़ लडकी तथा उसके माता पिता आशा के घर आये। राजू घरपरही ही था। सब एक-दूसरेके साथ मिलजुल कर हँसे-बोले। लडकी सुन्दर थी,घरंदाज़ दिख रही थी,और बयोलोजी लेकर एम्.एससी.किया था।
जब वे लोग चले गए तो आशा ने धीरे से बात छेड़ी। राजू चकित होकर बोला,"माँ!!तुमभी क्या चीज़ हो! क्या बेमालूम अभिनय किया! पहले लड़कीको तो पूछो। और इसके अलावा हमे कुछ बार मिलना पड़ेगा तभी कुछ निर्णय होगा!"
"एकदम मंज़ूर! मैं लड़कीकी माँ को वैसी खबर देती हूँ। हमने पहलेसेही वैसा तय किया था॥ लड़कीको पूछ्के,मतलब माया को पूछ के वो मुझे बताएंगी। फिर तुम्हे जैसा समय हो,जब ठीक लगे,जहाँ ठीक लगे, मिल लेना, बातें कर लेना,"आशा खुश होकर बोली। उसे लड़कीका बोहोत प्यारा लगा,'माया'।
राजू और माया एक -दूसरेसे आनेवाले दिनोमे मिले। कभी होटल मे तो कभी तालाब के किनारे। राजीवने अपने कामका स्वरूप मायाको समझाया। उसकी व्यस्तता समझाई। रात-बेरात आपातकालीन कॉल आते हैं,आदि,आदि सब कुछ। अंत मे दोनोने विवाह का निर्णय लिया। आशा हवामे उड़ने लगी। बिलकुल मर्जीके मुताबिक बहू जो आ रही थी।
झटपट मंगनी हुई और फिर ब्याह्भी। कुछ दिन छुट्टी लेकर राजीव और माया हनीमून पेभी हो आये। बाद मे माया ने भी घरवालोंकी सलाह्से नौकरीकी तलाश शुरू की और उसे एक कॉलेज से कॉल आया,वहीँ पर उसने फुल टाइम के बदले पार्ट टाइम नौकरी स्वीकार की,अन्यथा घरमे सास पर कामका पूरा ही बोझ पड़ता।
अपूर्ण